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pyar bina chain kaha re

http://rworldlove.blogspot.in/2017/04/pyaar-ka-punchnama.html

आपने कभी इश्क़ किया है? जब मोहब्बत का नशा तारी होता है, तो आपके दिल की धड़कनें तेज़ हो जाती हैं. पसीना छूटता है.

आप ख़ुद के भीतर एक गर्माहट महसूस करते हैं. दुनिया घूमती सी मालूम होती है.
ये शरीर के वो कुछ लक्षण हैं जो आपको प्यार का एहसास होते ही नज़र आते हैं. इंसानियत के इतिहास का अच्छा-ख़ासा हिस्सा इश्क़ की नज़र हुआ है.

जिधर नज़र दौड़ाइए, मोहब्बत बयां होती नज़र आती है. आर्ट हो, कल्चर हो, हर जगह कामयाब मोहब्बत और नाकाम इश्क़ के हज़ारों क़िस्से देखने-सुनने को मिल जाएंगे.



दुनिया भर की लाइब्रेरीज़ में रोमांटिक उपन्यासों, प्रेमगीतों, इश्क़ के क़िस्से-कहानियों की क़िताबों की भरमार है.
मोहब्बत के एहसास को मशहूर ब्रिटिश लेखक शेक्सपीयर ने अपने मशहूर प्रेमगीत, 'सॉनेट 116' में कुछ यूं बयां किया है, 'इश्क़ कभी मरता नहीं. वक़्त के दायरे इसे मिटा नहीं पाते.


इंसान की हस्ती मिट जाती है, मगर प्यार क़यामत के बाद भी ज़िंदा रहता है.'
शेक्सपीयर ने जितना सोचा न होगा, उनकी बातें उससे भी ज़्यादा सही हैं. अगर क़ुदरत में प्यार के एहसास की बात करें तो ये इंसान के धरती से आने से भी पहले से मौजूद था.
मगर, शायद इश्क़ का क़ुदरत में आग़ाज़ एक ख़ूबसूरत एहसास के तौर पर नहीं बल्कि छल-कपट के लिए हुआ था.
क़ुदरती तौर पर मोहब्बत के एहसास की बुनियाद सेक्स से पड़ी थी. जैसे ही ज़िंदगी ने क़ुदरत में पांव रखा, उसके ज़ेहन में पहला सवाल ख़ुद को ज़िंदा रखने का आया.
सो उसने यौन संबंध का तरीक़ा निकाला ताकि अपने जीन्स को अगली पीढ़ी के हवाले कर सके. जिससे ज़िंदगी का कारवां आगे बढ़ता रहे.
प्यार के एहसास को महसूस कर सकें इसके लिए जीव-जंतुओं की पहली ज़रूरत थी दिमाग़ की.
धरती पर ज़िंदगी का सफर शुरू होने के करोड़ों साल बाद जाकर जीवों में दिमाग़ का विकास होना शुरू हुआ था. दिमाग़ के विकास का ये सफर करोड़ों बरस पहले कुछ सेल्स से शुरू हुआ.
इंसान के भाई-बंधु यानी प्राइमेट्स या बंदर, चिंपैंजी, गोरिल्ला वग़ैरह धरती पर क़रीब छह करोड़ बरस पहले विकसित हुए.
इन्हीं में से कुछ ने अपने दिमाग़ को बेहतर तरीक़े से इस्तेमाल करना शुरू किया. इससे उनके दिमाग़ का आकार बड़ा हुआ.
और आख़िर में धरती पर आया इंसान. सबसे बड़े और तेज़ दिमाग़ वाला जानवर.
मगर, बड़े दिमाग़ के विकास के लिए ज़रूरी था कि इंसानों के बच्चे जल्दी पैदा हों. वरना सिर बड़ा होने पर उनके मां के गर्भ से बाहर आने में दिक़्क़त होनी थी.
अब इसमें नया पेंच ये था कि गोरिल्ला, चिंपैंजी या इंसानों के बच्चे पैदा होने के बाद का़फ़ी दिनों तक ख़ुद से कुछ कर नहीं पाते. मां-बाप के भरोसे रहते हैं.
नई नस्ल के बचपने के इस लंबे दौर ने नई मुसीबत खड़ी कर दी. इन बच्चों की माओं को ज़्यादा वक़्त अपने बच्चों को देना पड़ता था.


लिहाज़ा वो अपने साथी के लिए कम वक़्त निकाल पाती थीं. और जब तक ये मादाएं अपने बच्चों की ज़िम्मेदारी से आज़ाद नहीं होतीं, साथी के साथ जिस्मानी रिश्तों के लिए उनके पास वक़्त ही नहीं होता था.

ऐसे में बेक़रार नर साथी, अपनी मादा से बच्चे छीनकर मारने तक पर आमादा हो गए. बच्चों को मारने की ये आदत कई स्तनपायी जानवरों में देखी जाती है.
मसलन, गोरिल्ला, बंदरों और यहां तक कि डॉल्फ़िन में भी.
यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के वैज्ञानिक किट ओपी कहते हैं कि बच्चों के मारे जाने के इस ख़ौफ़ की वजह से ही प्राइमेट्स यानी नर-वानरों में एकल साथी की यानी मोनोगैमी की शुरुआत हुई.

उन्होंने अपने तमाम रिसर्च की बुनियाद पर दावा किया कि बच्चों की हत्या और इसके डर से पैदा हुई एकल साथी की आदत यानी मोनोगैमी का विकास बीस लाख सालों में हुआ.

कई दूसरे जानवरों से इसकी अलग ही काट निकाल ली. जैसे चिंपैंजी औऱ बोनोबोस. ये इतने साथियों से ताल्लुक़ बनाते हैं कि इनके नरों को पता ही नहीं होता कि उनकी औलाद कौन है.


ऐसे में बच्चों को मारने का डर ही नहीं होता.
लेकिन जिन जानवरों में मोनोगैमी, यानी एक ही साथी के साथ ज़िंदगी गुज़ारने का चलन शुरू हुआ, उनके बच्चों की अच्छी परवरिश होने लगी.

क्योंकि मां-बाप मिलकर बच्चों की देख-भाल करते हैं.
ओपी और कुछ दूसरे वैज्ञानिक मानते हैं कि साथ वक़्त गुज़ारने की इसी आदत के चलते जानवरों में प्यार का, लगाव का एहसास पैदा हुआ होगा.

ओपी का दावा है कि इंसानों में प्यार का एहसास भी इसी क़ुदरती बदलाव के नतीजे में पैदा हुआ. साथ वक़्त गुज़ारते हुए प्रेमी जोड़े एक दूसरे के बारे में शिद्दत से जुड़ाव महसूस करने लगे.

और इस एहसास की बदौलत ही इंसान के दिमाग़ का तेज़ी से विकास हुआ.

क़ुदरत में इसके कुछ सबूत भी मिलते हैं. जब दो जोड़े साथ वक़्त बिताने लगे. उनके दिमाग़ ज़्यादा तेज़ चलने लगे. फिर वो ऐसे दूसरे जोड़ों के साथ जुड़ने लगे, जो अपने साथियों के प्रति वफ़ादार थे.


लाखों साल पहले हुई इस शुरुआत से इंसानों के समुदाय बड़े होने लगे. क़बीले बनने लगे. इंसान की एक नस्ल, होमो इरेक्टस में ऐसे चलन के कई सबूत वैज्ञानिकों ने इकट्ठे किए हैं.

जब कोई प्यार में पड़ जाता है, तो, लोग कहते हैं कि इसके दिमाग़ में 'केमिकल लोचा' हो गया है. लोग सही कहते हैं. ऐसा वाक़ई होता है.

हमारे दिमाग़ के जिस हिस्से में प्यार का एहसास जागता है, महसूस होता है, वो इंसान के विकास की प्रक्रिया में बहुत बाद में विकसित हुआ.

शिकागो यूनिवर्सिटी की स्टेफनी कैशियोपो ने इस बारे में काफ़ी रिसर्च की है. हमारे दिमाग़ के जिस हिस्से में प्यार के एहसास को महसूस किया जाता है उसे एंगुलर गायरस कहते हैं.

ये दिमाग़ का वही हिस्सा है जहां ज़ुबान समझने का भी हिस्सा होता है. शायद यही वजह है कि हम जब मोहब्बत को बयां करते हैं तो लच्छेदार ज़ुबान में करते हैं.

सिर्फ़ इंसान और बड़े प्राइमेट्स यानी चिंपैंजी, गोरिल्ला वग़ैरह के दिमाग़ में ये कोना पाया जाता है.

स्टेफनी कहती हैं कि गोरिल्ला या चिंपैंजी प्यार के बारे में क्या सोचते हैं, क्या महसूस करते हैं, ये तो किसी को नहीं पता, क्योंकि वो इंसानों की तरह प्यार के गीत तो लिखते नहीं.

मगर ये बात एकदम साफ़ है कि दिमाग़ के विकास के साथ ही इंसान में प्यार का एहसास पैदा हुआ.
हालांकि ज़्यादातर वैज्ञानिक कहते हैं कि प्यार, बच्चों को मारे जाने से बचाने के ख़ौफ़ से पैदा हुआ, ये कहना ठीक नहीं.

दोनों एकदम अलग-अलग बातें हैं. मोनोगैमी या एक ही साथी के साथ ज़िंदगी बिताने की परंपरा का, मोहब्बत के एहसास से कोई ताल्लुक़ नहीं.

क्योंकि नरवानरों या प्राइमेट्स की कई जातियों में नर-मादा के बीच ऐसा कोई जुड़ाव नहीं देखा गया. वो आसानी से साथी बदलते नज़र आए. अगर प्यार होता तो वो भी एक साथी के साथ ही रहते.

कुछ वैज्ञानिक किसी ख़ास के प्रति लगाव या प्यार के इस एहसास को मां और बच्चे के क़रीबी लगाव का नतीजा मानते हैं. नर और मादा साथी में भले मज़बूत रिश्ते न देखने को मिलें.
मगर प्राइमेट्स, यानी इंसान के कुनबे में मां
का अपने बच्चे से हमेशा गहरा लगाव देखने को मिलता है.

वैज्ञानिक कहते हैं कि मां और बच्चे के बीच यही गहरा लगाव आगे चलकर अपने साथी के प्रति प्यार के एहसास में तब्दील हो गया.

यूं तो ये बताना बड़ा मुश्किल है कि आख़िर इश्क़ है तो क्या?
मगर, न्यूरोसाइंटिस्ट्स ने इसके अलग अलग पड़ाव को समझने-समझाने की कोशिश की है. वो कहते हैं कि इसका पहला पड़ाव होता है पसंदीदा साथी से जिस्मानी रिश्ते बनाने की चाहत.

दिमाग़ से ऐसे हॉरमोन निकलते हैं जो साथी को छूने पर फ़ील गुड का एहसास कराते हैं. फिर, उनके साथ ज़्यादा वक़्त गुज़ारने की ख़्वाहिश होती है.

इस पूरी प्रक्रिया के दौरान हमारे दिमाग का वो हिस्सा एक्टिव होता है, जिसका इंसान में बहुत पहले विकास हो गया था.

यानी जिस्मानी रिश्ते की चाहत महसूस करना, इंसान ने पहले सीख लिया था. जैसे अपने मन का साथी दिखता है, दिमाग़ का ये हिस्सा एक्टिव हो जाता है. हमें उसकी तरफ़ धकेलता है.

प्यार का दूसरा पड़ाव होता है रूमानी एहसास का. इसमें भी हमारे दिमाग़ का वही हिस्सा काम करता है जिसमें शारीरिक संबंध की ख़्वाहिश महसूस होती है.

इस हिस्से से डोपामाइन नाम का केमिकल और ऑक्सीटोसिन नाम का हारमोन निकलता है. इन दोनों से, इंसानों में एक ख़ास साथी के प्रति जुड़ाव का एहसास होता है.









शिकागो यूनिवर्सिटी वैज्ञानिक स्टेफनी इसका मतलब समझाती हैं. वो कहती हैं, "कई बार लोग सेक्स के बाद, एक दूसरे के प्रति गहरा जुड़ाव महसूस करते हैं. मतलब साफ है. आप किसी ऐसे से प्यार का शिद्दत से एहसास नहीं कर सकते, जिसके साथ जिस्मानी ताल्लुक़ की आपके अंदर ख़्वाहिश न हो."

दिलचस्प बात ये है कि जब दिमाग का एक हिस्सा मोहब्बत के एहसास में मुब्तिला होता है. तभी, वो हिस्सा काम करना बंद कर देता है, जो हमें अक़्लमंद बनाता है. सोचने समझने की ताक़त देता है.

अब समझ में आया कि इश्क़ में लोग क्यों दीवाने हो जाते हैं. क्योंकि, प्यार का एहसास होते ही उनकी सोचने समझने की, सही फ़ैसले लेने की ताक़त कमज़ोर पड़ जाती है.

अक़्ल काम करना बंद कर देती है. इसी को कहते हैं प्यार में पागल होना.

प्यार का एहसास पैदा होते ही हमारे दिमाग़ में एक और बदलाव होता है. हमारे दिमाग़ से सेरोटोनिन नाम का केमिकल निकलना बंद होता है.

ये केमिकल हमें शांत रहने में, धैर्यवान बनने में मदद करता है. मगर, जब मोहब्बत होती है, तो दिमाग़ से सेरोटोनिन निकलना कम हो जाता है. हम बेचैन हो जाते हैं. दीवानेपन का एहसास होता है.

वैज्ञानिक कहते हैं कि प्यार होने का सीधा सा मक़सद क़ुदरती है. जब दो लोगों में ये एहसास पैदा होता है तो दोनों साथ ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त गुज़ारेंगे.

ऐसा होगा तो दोनों में जिस्मानी रिश्ते बनेंगे और फिर अगली पीढ़ी के दुनिया में आने की बुनियाद रखी जाएगी.
यही प्रकृति का बुनियादी नियम है.



सभी जीव एक ही मक़सद के लिए हैं. अपने जीन्स अगली पीढ़ी को सौंप दें, दुनिया से रुख़सत होने से पहले.
मगर, इंसान में प्यार के एहसास के कई पहलू हैं. शारीरिक संबंध बनने के बाद शायद साथी के प्रति उतना गहरा लगाव नहीं रह जाता.

दीवानेपन का नशा उतरता है. ये सिलसिला आगे बढ़ता है. 'हनीमून पीरियड' ख़त्म होने के बाद आता है दोस्ताना साथ का दौर.

मोहब्बत के इस पड़ाव पर हमारा दिमाग़, वापस सेरोटोनिन केमिकल छोड़ने लगता है. हम दीवानेपन के दौर से निकल पाते हैं. शांत चित्त होते हैं.

हालांकि ऑक्सीटोसिन हारमोन की वजह से हम इस दौर में भी साथी के प्रति गहरा जुड़ाव महसूस करते हैं.
इसे ही प्यार की गहराई कहते हैं जब शुरुआती दीवानेपन के बाद भी हम साथी के प्रति मोहब्बत महसूस करते हैं.

दिमाग़ की ये वैसी ही प्रक्रिया है जो मां और बच्चे के रिश्ते को मज़बूत बनाती है. वहीं हारमोन और केमिकल इसमें भी काम करते हैं जो मां बच्चे के रिश्ते की गहराई का एह
सास कराते हैं.

तो ये कहना ज़्यादा मुनासिब होगा कि इंसान में प्यार का एहसास, मां-बच्चे के रिश्ते की अगली कड़ी के तौर पर पैदा हुआ.

इंसान में हो या फिर प्राइमेट्स के कुनबे के दूसरे सदस्य, सबमें साथी से बिछड़ने पर दर्द का एहसास एक जैसा होता है.

इसी दर्द से बचने के लिए ही लोग अपने प्रिय के साथ ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त गुज़ारना चाहते हैं.
वैज्ञानिक कहते हैं कि इसका भी इंसान के क़ुरदरती विकास से गहरा नाता है.

प्यार के तमाम पहलुओं को महसूस करने में दिमाग़ का जो हिस्सा काम करता है, वो कई दूसरे स्तनपायी जानवरों और यहां तक कि सांपों-छिपकलियों के परिवार के जीवों के दिमाग़ में भी पाया जाता है.

दिमाग का ये सबसे पुराना हिस्सा है, जो दूसरे जीवों से विकसित होते हुए इंसान में आया है.


मतलब साफ़ है क़ुदरत, ख़ुद से ही करोड़ों सालों से जीवों में प्यार का एहसास पैदा करने की कोशिश कर रही है.
विकास की इस प्रक्रिया में इंसान का दिमाग़ सबसे ज़्यादा तेज़ निकला. यही वजह है कि इंसान में इश्क़ के तमाम पहलू, इससे जुड़े तमाम एहसास पैदा हो गए. रिश्तों में रूमानियत आई.

इसे बयां करने के तमाम तरीक़े निकाले गए.

अब प्यार का ये ख़ूबूसरत तोहफ़ा चाहे जिस वजह से हमें मिला, हमें इस बात पर ख़ुश होना चाहिए कि हम में मोहब्बत में दीवाने होने होने का एहसास पैदा हुआ.
आज इंसान जो भी है, इसी एहसास की वजह से है.

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